भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उम्मीद / अविनाश

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:04, 8 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सर से पानी सरक रहा है आंखों भर अंधेरा
उम्मीदों की सांस बची है होगा कभी सबेरा

दुर्दिन में है देश शहर सहमे सहमे हैं
रोज़ रोज़ कई वारदात कोई न कोई बखेड़ा

पूरी रात अगोर रहे थे खाली पगडंडी
सुबह हुई पर अब भी है सन्नाटे का घेरा

सबके चेहरे पर खामोशी की मोटी चादर
अब भी पूरी बस्ती पर है गुंडों का पहरा

भूख बड़े सह लेंगे, बच्चे रोएंगे रोटी रोटी
प्यास लगी तो मांगेंगे पानी कतरा कतरा

अब तो चार क़दम भर थामें हाथ पड़ोसी का
जलते हुए गांव में साथी क्या तेरा क्या मेरा