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जीवित जल / अशोक वाजपेयी

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तुम ऋतुओं को पसन्द करती हो
और आकाश में
किसी-न-किसी की प्रतीक्षा करती हो –
तुम्हारी बाँहें ऋतुओं की तरह युवा हैं
तुम्हारे कितने जीवित जल
तुम्हे घेरते ही जा रहे हैं।
और तुम हो कि फिर खड़ी हो
अलसायी; धूप-तपा मुख लिये
एक नये झरने का कलरव सुनतीं
-एक घाटी की पूरी हरी महिमा के साथ !