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क्या रुख़्सत-ए-यार की घड़ी थी / फ़राज़
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क्या रुख़्सत-ए-यार की घड़ी थी
हँसती हुई रात रो पड़ी थी
हम ख़ुद ही हुए तबाह वरना
दुनिया को हमारी क्या पड़ी थी
ये ज़ख़्म हैं उन दिनों की यादें
जब आप से दोस्ती बड़ी थी
जाते तो किधर को तेरे वहशी
ज़न्जीर-ए-जुनूँ कड़ी पड़ी थी
ग़म थे कि "फ़राज़" आँधियाँ थी
दिल था कि "फ़राज़" पन्खुदई थी