मीमांसा / शशि पाधा
वेद पुराण सब बाँचे मैंने
पढ़ ली सब ग्रन्थों की भाषा
फिर भी क्यों मैं समझ न पाई
जग में सुख दुख की परिभाषा ?
जल बिन्दु से सुख के पल तो
दुख की रातें लम्बी लगतीं
इन्द्र धनु रंग भरता नभ में
काली बदली आकर ढकती
रिमझिम बूंदें बरसा करतीं
पपीहरा किस बूंद का प्यासा ?
जाने क्यों मैं समझ न पाई
जग में जीने की परिभाषा ।
जिस नभ से सुख के कण बरसे
ओस कणों में वो भी रोये
पुष्पित करता हरित धरा जो
चुभते कांटे वो ही बोये
सुख दुख से कुछ भी तुम चुन लो
नियति ने फेंका है पाँसा
न जाने क्यों समझ न पाई
जीवन क्रीडा की परिभाषा।
नव जीवन का संदेशा ले
वासंती रुत इठलाती आती
दूर खड़ी तब पतझड़ हँसती
पीत पात झरती बिखराती
मूल तरू कब सूखा करते
कोंपल सी उगती अभिलाषा
कैसे फिर भी समझ न पाई
हंस कर जीने की परिभाषा?