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एक ऋतु का स्वागत / आलोक श्रीवास्तव-२

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आओ, तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी

मैं ही नहीं -
जिन दिशाओं के कंधों पर
रखता हूं अपना थका शीश
कगार पर टूटती जिन लहरों पर
करता हूं धवनित -
दिल का कोई बहुत भीतरी दुख,
विंध्य के वे तमाम पर्वत
जिनसे होकर गुजरा मैं
चट्टानों को तराशती
माटी को आकार देती
मेरे रास्ते की वे तमाम नदियां
मेरे वन्य-प्रदेश के वे ढेर के ढेर पलाश
मीलों फैला ढाक का वह वन
- सब तुम्हारे मुंतज़िर थे

ओ ऋतुओं की पुत्री !
तुम्हारी हंसी की उपमा नहीं दूंगा हिमालय से
तुम्हारे ये सदा-स्मित अधर
नहीं आकूंगा किसी कोमल पंखुरी से
तुम्हारी ये आंखें
जिनमें रौशनी बंद है एक नयी दुनिया की
तुलना नहीं करुंगा इनकी सीप से
नहीं कहूंगा तुम्हारे केशों को
अंधेरे का आबशार

जानता हूं तुम वह हो
जो खुद को पाने निकली है
तुम्हारी गति एक नदी की तरह है
जिसका सबसे बड़ा सत्य है -
प्रवाह
बहुत अनजाने तुम तक आ निकला हूं मैं
और तुम्हारी लहरें मेरी अंजलियों में
मेरे पांवों, मेरी आंखों मेरे दिल में

आओ, स्वागत है तुम्हारा
बहुत वैभव नहीं है यहां
पर रौशनी का एक आबशार है
यह मैं तुम्हें दूंगा
कुछ मौसमों का दर्द है
और कुछ फूलों की स्मृतियां
एक शहर की बस्तियां हैं
एक जंगल की सूनी रात
और प्रिये देखो
ये कवितायें है -
मारीना और पाश की
इंशा और शमशेर की
ये तुम्हें दूंगा -
ऋतु के नये खिले फूलों में गूंथकर

डरना नहीं तुम
मेरे पास नहीं है कोई काली रात
कोई फ़सील, कोई दुःस्वप्न
मैं इन सबको पार करता आया हूं तुम तक
हां, यादें हैं
धरती के सबसे साधारण लोगों की
सबसे कीमती जज़्बातों की
और बेहिसाब ख़ूबसूरत फूलों की
सब तुम्हारे लिये प्रिये
संजोये हैं ये बंदनवार और ख़ुशबुएं
इस शब्दों में, दिल में, हांथों में,
सांस की आवाजाही में तुम्हारे लिये

नदी-तट पर बंधी पड़ी है नौका
स्वर्ण्लोक को नहीं पर
अपने बचपन की विंध्य-धरा तक तो
तुम्हें ले ही चलूंगा नौका पर

तुम हंसोगी
और झूम उठेगी हरियाली
वे ग्राम-गीत
वह गोधूलि
मीठे अवसाद में डूबा वह संध्यालोक
मैं तुम्हें दूंगा प्रिये -
जाते चैत्र की हवाओं में गूंथकर

कहां पता था
कि धरती जहां सबसे ज्यादा निर्जन होती है
सागर जहां सिर्फ अकेला
धूप जहां सबसे सख़्त
बियाबान जहां सबसे सघन
मरुभूमि जहां सबसे विशाल
वहीं अचानक हंस उठता है अंकुर

कहां पता था
कि दुख के ऐसे कड़े दिनों में
निराशा और टूटन की ऐसी असह्य घड़ियों में
लौटती ऋतुओं और
गूंजते शोक के बीच
तुम्हें पाउंगा

कहां पता था
कि तुम्हारा प्रवाह मेरी अंजलियों में
एक नयी यात्रा का स्वप्न बन जायेगा

धन्यवाद ! तुमने जो स्वप्न दिये, प्रवाह दिया
हंसी और फूल दिये, और ये जो
इतने सारे शब्द दिये -
जिनमें सचमुच अर्थ है
दिल के बहुत भीतर से धन्यवाद

ओ ऋतुओं की पुत्री ! आओ
मुझमें जो यह पलाशों का वन है
ये जो विंध्य के असंख्य पर्वत हैं
ये जो ढेरों पहाड़ी नदियां
चीड़, साल, वट और सागौन के
ये जो विशाल दरख्त हैं
फिर यह जो सागर है
कगारों पर लहरों में टूटता
यह जो अनंत हरियाली है
क्षितिज तक झूमती -
बहुत खुश, बहुत विनम्र
बहुत आभारी होकर
तुम्हारा स्वागत करती है ।