Last modified on 10 दिसम्बर 2006, at 15:01

मेरी नींदः रेत की मछली / कैलाश गौतम

पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 15:01, 10 दिसम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरी नींद

रेत की मछली

हुई मसहरी में।।


धान पान थे खेत हमारे

नहरें लील गई

जैसे फूले कमल

ताल की लहरे लील गईं

आग लगी है

घर की मीठी

गंगा लहरी में।।


कालीख झरती धूप

यहाँ की हवा विषैली है

सबसे ज़्यादा

धोबी की ही चादर मैली है

दिखलाई देते हैं

तारे

भरी दुपहरी में।।


मुखिया खाते दूध भात

हम धोखा खाते हैं

वहीं पंच परमेश्वर हैं

जो घर अलगाते हैं

जितनी सड़कें

नयीं बनीं सब

गईं कचहरी में।