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पहिचान / महादेवी वर्मा

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किसी नक्षत्रलोक से टूट
विश्व के शतदल पर अज्ञात,
ढुलक जो पड़ी ओस की बूँद
तरल मोती सा ले मृदु गात;
नाम से जीवन से अनजान,
कहो क्या परिचय दे नादान।
किसी निर्मम कर का अघात
छेड़ता जब वीणा के तार,
अनिल के चल पंखों के साथ
दूर जो उड़ जाती झंकार;
जन्म ही उसे विरह की रात,
सुनावे क्या वह मिलनप्रभात।
चाह शैशव सा परिचयहीन
पलकदोलों में पलभर झूल,
कपोलों पर जो ढुल चुपचाप
गया कुम्हला आँखों का फूल;
एक ही आदि अन्त की साँस--
कहे वह क्या पिछला इतिहास!
मूक हो जाता वारिद घोष
जगा कर जब सारा संसार,
गूँजती टकराती असहाय
धरा से जो प्रतिध्वनि सुकुमार;
देश का जिसे न निज का भान,
बतावे क्या अपनी पहिचान!
सिन्धु को क्या परिचय दे देव!
बिगड़ते बनते वीचि-विलास;
क्षुद्र हैं मेरे बुदबुद प्राण
तुम्हीं में सृष्टि तुम्हीं में नाश!
मुझे क्यों देते हो अभिराम!
थाह पाने का दुस्कर काम?
जन्म ही जिसको हुआ वियोग
तुम्हारा ही तो हूँ उच्छवास;
चुरा लाया जो विश्व-समीर
वही पीड़ा की पहली सांस!
छोड़ क्यों देते बारम्बार,
मुझे तम से करने अभिसार?
छिपा है जननी का अस्तित्व
रुदन में शिशु के अर्थविहीन;
मिलेगा चित्रकार का ज्ञान
चित्र की ही जड़ता में लीन;
दृगों में छिपा अश्रु का हार,
सुभग है तेरा ही उपहार!