रहस्य / महादेवी वर्मा
न थे जब परिवर्तन दिनरात,
नहीं आलोक तिमिर थे ज्ञात;
व्याप्त क्या सूने में सब ओर,
एक कम्पन थी एक हिलोर?
न जिसमें स्पन्दन था न विकार,
न जिसका आदि न उपसंहार!
सृष्टि के आदि में मौन,
अकेला सोता था वह कौन?
स्वर्णलूता सी कब सुकुमार,
हुई उसमें इच्छा साकार?
उगल जिसने तिनरंगे तार,
बुन लिया अपना ही संसार!
बदलता इन्द्रधनुष सा रंग,
सदा वह रहा नियति के संग;
नहीं उसको विराम विश्राम,
एक बनने मिटने का काम!
सिन्धु की जैसे तप्त उसांस,
दिखा नभ में लहरों का लास,
घात प्रतिघातों की खा चोट,
अश्रु बन फिर आ जाती लौट।
बुलबुले मृदु उर के से भाव,
रश्मियों से कर कर अपनाव,
यथा हो जाते जलमयप्राण--
उसी में आदि वही अवसान!
धरा की जड़ता ऊर्वर बन,
प्रकट करती अपार जीवन;
उसी में मिलते वे द्रुततर,
सीचने क्या नवीन अंकुर?
मृत्यु का प्रस्तर सा उर चीर,
प्रवाहित होता जीवननीर;
चेतना से जड़ का बन्धन,
यही संसृति की हृत्कम्पन!
विविध रंगों के मुकुर सँवार,
जड़ा जिसने यह कारागार;