भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़्वाब / परवीन शाकिर

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:36, 17 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खुले पानियों में घिरी लड़कियाँ
नर्म लहरों के छींटे उड़ाती हुई
बात बे-बात हँसती
अपने ख़्वाबों के शहज़ादों का तज़्किरा<ref>चर्चा</ref> कर रही थीं
जो ख़ामोश थीं
उनकी आँखों में भी मुस्कराहट की तहरीर थी
उनके होंठों को भी अनकहे ख़्वाब का ज़ायका चूमता था
(आने वाले मौसमों के सभी पैरहन नीलमें हो चुके थे )
दूर साहिल पे बैठी हुई एक नन्ही-सी बच्ची
हमारी हँसी और मौजों के आहंग<ref>संकल्प</ref> से बेख़बर
रेत से एक नन्हा घरौंदा बनाने में मसरूफ़<ref>व्यस्त</ref> थी
और मैं सोचती थी
ख़ुदाया ये हम लड़कियाँ
कच्ची उम्र से ही ख़्वाब क्यूँ देखना चाहती हैं
ख़्वाब की हुक्मरानी में कितना तसलसुल<ref>निरंतरता</ref> रहा है

शब्दार्थ
<references/>