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प्रकाश / रामधारी सिंह "दिनकर"

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किरणों की यह वृष्टि! दीन पर दया करो,
धरो, धरो, करुणामय! मेरी बाँह धरो।
कोने का मैं एक कुसुम पीला-पीला,
छाया से मेरा तन गीला, मन गीला।
अन्तर की आर्द्रता न कहीं गँवाऊँ मैं,
बीच धूप में पड़ कर सूख न जाऊँ मैं।
छाया दो, छाया दो, मुझे छिपाओ हे!
इस प्रकाश के विष से मुझे बचाओ हे!