Last modified on 23 नवम्बर 2009, at 21:39

विराटता का स्वप्न / जया जादवानी

गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:39, 23 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= जया जादवानी |संग्रह=उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्व…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

और मैंने उसे खो ही दिया आख़िरकार
बहुत दिन रखा पिंजरे में सम्भालकर
खिलाई हरी मिर्चें और
भीगे चने रोज़
बचाया बिल्ली के नुकीले पंजों से
रखा सबसे ऊपर टाँग कर
जब भी बोलता, एक भी शब्द तुतलाता
मारे ख़ुशी के नींद नहीं आती रातभर
देखा धीरे-धीरे भूल गया
उड़ने की चाहत
भूला कोशिशें
सीखा स्वीकारना नियति को ज्यों का त्यों
फिर एक दिन छोड़ा फ़र्श पर तो जाना
अब न ख़ुद उड़ सकता, न उड़ा सकता मुझे
मैं क्या करती, मैंने उसे
मुक्त आकाश में छोड़ा स्वच्छन्द
कुछ दिन वो सामने वाले वृक्ष की शाख़ पर
बैठा टुकुर-टुकुर ताकता छूटे हुए को
अनन्त आकाश में
वह उड़ा और
आया नहीं लौटकर
जाना
विराटता का स्वप्न
सबसे पहले
माँगता है कीमत
ख़ुद अपनी।