भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुःख के इन दिनों में / लाल्टू

Kavita Kosh से
Rajeevnhpc102 (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:42, 27 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लाल्टू |संग्रह= }} <poem>छोटे छोटे दुःख बहुत हेते है …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छोटे छोटे दुःख बहुत हेते है
कुछ बड़े भी हैं दुःख
हमेशा कोई न कोई
होता है हमसे अधिक दुःखी

हमारे कई सुख
दूसरों के दुःख होते है
न जाने किन सुख दुःखों
के बीज ढोते हैं
हम सब

सुख दुःखों से
बने धर्म
सबसे बड़ा धर्म
खोज आदि पिता की
नंगी माँ की खोज
पहली बार जिसका दूध हमने पिया

आदि बिन्दु से
भविष्य के कई विकल्पों की
खोज
जंगली माँ के दूध से
यह धर्म हमने पाया है
हमारे बीज अणुओं में
इसी धर्म के सूक्ष्म सूत्र हैं

यह जानने में सदियाँ गुजर जाती हैं
कि इन सूत्रों ने हमें आपस में जोड़ रखा है

अंत तक रह जाता है
सिर्फ एक दूसरे के प्यार की खोज में
तड़पता अंतस्
आखिरी प्यास
एक दूसरे की गोद में
मुँह छिपाने की होती है

सच है
जब दुःख घना हो
प्रकट होती है
एक दूसरे को निगल जाने की
जघन्य आकांक्षा
इसके लिए
किसी साँप को
दोषी ठहराया जाना जरूरी नहीं

आदि माँ की त्वचा भूलकर
अंधकार को हावी होने देना
धर्म को नष्ट होने देना है

अपनी उँगलियों को उन तारों पर चलने दो
जो आँखें बिछा रही हैं
फूल का खिलना
बच्चे का नींद में मुस्कराना
न जाने कितने रहस्यों को
आँखें समझती हैं
आँखों के लिए भी सूत्र हैं
जो उसी अनन्य सम्भोग से जन्मे हैं

अँधेरा चीरकर
आँखें निकालेंगी
आस्मान की रोशनी
दुःख के इन दिनों में
धीरज रखो
उसे देखो
जो भविष्य के लिए
अँधेरे में निकल पड़ा है
उसकी राहों को बनाने में
अपने हाथ दो
हवा से बातें करो
हवा ले जायेगी नींद
दिखेगा आस्मान। (१९८९)