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ठोकर / अरुण आदित्य

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हम अपनी रौ में जा रहे होते हैं
अचानक किसी पत्थर की ठोकर लगती है
और एक टीस-सी उठती है
जो पैर के अंगूठे से शुरू होकर झनझना देती है दिमाग तक को

एक झनझनाहट पत्थर में भी उठती है
और हमारे पैर की चोट खाया हुआ हत-मान वह
शर्म से लुढ़क जाता है एक ओर

एक पल रुककर हम देखते हैं ठोकर खाया हुआ अपना अंगूठा
पत्थर को कोसते हुए सहलाते हैं अपना पाँव
और पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी
झाड़ती है भय संकोच की धूल
और ला खड़ा करती है उसे किसी और के गुरूर की राह में।