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फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा / अमीर मीनाई

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फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा
कभी तकया इधर रक्खा, कभी तकया उधर रक्खा

बराबर आईने के भी न समझे क़द्र वो दिल की
इसे ज़ेर-ए-क़दम रक्खा उसे पेश-ए-नज़र रक्खा

तुम्हारे संग-ए-दर का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़ ऐसा किया कि मर कर उसे छाती पे धर रक्खा

जिनाँ में साथ अपने क्यों न ले जाऊँ मैं नासेह को
सुलूक ऐसा ही मेरे साथ है हज़रत ने कर रक्खा

बड़ा एहसाँ है मेरे सर पे उसकी लग़ज़िश-ए-पा का
कि उसने बेतहाशा हाथ मेरे दोश पर रक्खा

तेरे हर नक़्श-ए-पा को रेहगुज़र में सजदा कर बैठे
जहाँ तूने क़दम रक्खा वहाँ हमने भी सर रक्खा

अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुरक़त में
जो बरसा अब्र-ए-रेहमत जा-ए-मय शीशे में भर रक्खा