Last modified on 3 दिसम्बर 2009, at 13:55

छायाछ्ल की रात / नरेन्द्र शर्मा

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:55, 3 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा |संग्रह=मिट्टी और फूल / नरेन्द्र …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आज रात को पहले-पहल नीम महका है,
मैं छाया में खड़ा हुआ हूँ आँखें मीचे!
कहता हूँ मैं--आज रात कितनी सुन्दर है,
कभी देख लेता हूँ जब पाँवों में नीचे!

देख रहा हूँ छायाछल, मैं सोच रहा हूँ,
कौन अल्पना काढ़ रही है विस्मित भू पर?
मौन मुग्ध मैं देख रहा हूँ तम के भीतर--
नाच रही हैं किसकी चटुल अँगुलियाँ ऊपर!

बहती मंद समीर, अधीर हृदय में सुधि-सी,
हिलती भू पर तरु-पत्रों की छाया चंचल,
सुन पद-चाप किसी की जैसे फूल-बेल-बूटों
की सारी में कँप कँप उठता वक्षस्थल!

छाया-छल की रात! कहो तुम कहाँ छिपी हो?
कहाँ छिपाये है तुमको तरु सौरभशाली?
पहन मंजरी-मुकुट पूछता तुमको ऋतुपति--
कहाँ छिपी हो, अलके सुरभित अलकों वाली?

दूर दूर तक अंधकार है, दूर दूर तक
गंध नीम की फैल रही है आज चतुर्दिक!
’आया मधुर वसन्त, विधुर वनवासी, जागो’,
कह कह कर यों क्या न उठेगी कुहुक कुहुक पिक?