भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पंचमी आज / नरेन्द्र शर्मा

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:28, 3 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा |संग्रह=मिट्टी और फूल / नरेन्द्र …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हिल रही नीम की डाल मंदगति, कहती रे--
बह रही लजीली सीरी धीरी पुरवय्या!
पंचमी आज, है आसमान में चपलप्राण चंदा,
जैसे जा रही दूर चाँदी की लघु चमचम नैय्या!

तुम मुझसे कितनी दूर आज, आ रहा ध्यान--
मिलने को उड़ उड़ जाने की कह रहे प्राण!
जा रहा लिए मधुगंध नीम की गंधवाह,
पर भूल गया मुझ सा ही यह भी कठिन राह!

आया अग जग ऋतुराज आज, तुम दूर आज!
हीरे बिखराती रात आज, तुम दूर आज!
हो दूर आज, तुम मुझसे कितनी दूर आज!
फीके लगते सब साज आज, तुम दूर आज!

हिल रही नीम की डाल मंदगति, कहती रे--
बह रही लजीली सीरी धीरी पुरवय्या!
पंचमी आज, है आसमान में चपलप्राण चंदा
जैसे जा रही दूर चाँदी की लघु चमचम नैय्या!

क्या वहाँ न मन के रोग-शोक, दुख-रोग-शोक?
है बहुत दूर नक्षत्र-लोक, नक्षत्र-लोक!
क्या वहाँ न सब दिन विरह-मिलन आलिंगन भर
रहते जैसे छाया-प्रकाश या अश्रुहास-से जीवन भर?

है बहुत दूर नक्षत्र-लोक, नक्षत्र-लोक!
क्या वहाँ सभी जन वीतराग, स्थिरचित, अशोक?
कैसे जानूँ, कैसे मानूँ मैं नक्षत्रों की छिपी बात,
पर अग जग आज उजागर तारों भरी रात!

पंचमी आज, है आसमान में चपलप्राण चंदा,
जैसे जा रही दूर चाँदी की लघु चमचम नैय्या!
हिल रही नीम की डाल मंदगति, कहती रे--
बह रही लजीली सीरी धीरी पुरवय्या!