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एक नारी के प्रति / नरेन्द्र शर्मा

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बाहुओं के प्रतनु दो पतवार अब मैं छोड़ता हूँ,
छोड़ता हूँ तट, तरी मझधार अब मैं छोड़ता हूँ!
आज मैं मुँह मोड़ता हूँ प्रेम की अलकापुरी से
केश-श्वासों की सुरभि, दृग-देश श्यामल, छोड़ता हूँ!

कामिनी की कामना? वह कर चुका हूँ पार मंज़िल,
बहुत ललचाए रही मन कांचना की ज्योति झिलमिल!
स्वप्न की सम्राज्ञि खोई, दिवा अब नवरूप जागी—
नया मनहर रूप निखरा आ रहा स्वर्णाभ-सा खिल!

पौ फटी, फटती यवनिका मोहमाया-यामिनी की;
फटी मेरी राह, मन से हटी मूरत कामिनी की!
प्रगति-पथ पर किरण छिटकाती चली वह मुक्तहासिनि—
वह नहीं, पर्यंक, पिय की अंक की जो शायिनी थी!

तुम नहीं हो भोग की ही वस्तु मुझको, अस्तु, तुम से
भीख मधु की माँगता मन भी नहीं, अलि ज्यों कुसुम से!
चाटुकारी से रिझाना—हुई अवहेला तुम्हारी, सुनो नारी,
करूँ अभिनन्दन तुम्हारा मौन अब बिन कहे तुम से!

आज तक तुम फूल, तितली गीत थी—वह छोड़ता हूँ!
प्रीति, कविकृत प्रेयसी की प्रीति थी—वह छोड़ता हूँ!
विश्व मधु का कुंड था, मन तरी, थे पतवार भुज द्वय—
सुनो, नारी! निरादर की रीति थी, वह छोड़ता हूँ!