कानों में गूंजती नदी
आंखों में पंख-पंख आसमान
सांस में हवाओं की
दुखती तारीखें
गुज़र रहे हद से यह
पानी तो दीखे
बोझ अभी ढो रही सदी
भीतर टूटता भीत का मकान।
चिडि़या की आंखों में
धूपों के तिनके
तेज़धार दुपहर में
हुए नहीं इनके
सामने पहाड़ त्रासदी
सुलगते हैं पिछले कई निशान।
शंख बने मछली के
बिंब को लिए
गीत गूंजते जो
गाए नहीं गए
समय मंत्र-विद्ध द्रौपदी
थोड़ी-सी हंसी, ढेर-सी थकान।