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मैं आया बन सन्ध्या अपार / रामकुमार वर्मा

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मैं आया बन सन्ध्या अपार।
नभ खोलो तारक द्वार-द्वार॥
यह है निशीथ मुझमें विलीन,
प्रति पल सूनेपन से नवीन;
हो रही शीत स-समीर पीन,
जग जड़ है मानो शिला-भार।
नभ खोलो तारक द्वार-द्वार॥
तुझमें प्रकाश कितना अपार!
रेखा-पथ से चू बार बार!!
इन प्राणों में कर ले विहार;
तुम वीणा, मैं हूँ स्वरित तार।
नभ खोलो तारक द्वार-द्वार॥
पश्चिम में बनकर सूत्रधार,
साकार दिवस कर निराकार,
रंगों में हँस कर ऐ अपार!
जग जीवन करते दिवस चार।
नभ खोलो तारक द्वार-द्वार॥