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दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ / ग़ालिब
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घनश्याम चन्द्र गुप्त (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 06:32, 26 दिसम्बर 2006 का अवतरण
लेखक: ग़ालिब
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दर्द मिन्नतकशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ
जमा करते हो क्यों रक़ीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जायें
तू ही जब ख़ंजर आज़मा न हुआ
कितने शीरीं हैं तेरे लब के रक़ीब
गालियाँ खाके बेमज़ा न हुआ
है ख़बर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मेरा भला न हुआ
जान दी, दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है के हक़ अदा न हुआ
ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गय रवा न हुआ
रहज़नी है कि दिलसितानी है
लेके दिल, दिलसिताँ रवा न हुआ
कुछ तो पढ़िये कि लोग कहते हैं
आज 'ग़ालिब' ग़ज़लसरा न हुआ