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गीत (४) / माखनलाल चतुर्वेदी

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नयनों पर सुख, नयनों पर दुख,
सुख में दुख, दुख में सुख जोड़ा।
खुले अन्ध-नीलम पर तारे,
रच-रच तोड़े कौन निगोड़ा?
संग चलो संग-संग री डोलो,
मन की मोट सम्भालो संग-संग,
हरी-हरी होवे वसुन्धरा,
इस पर अमृत ढालो संग-संग।
इन कसकों में कितनी सूझें?
इन सूझों में कितना सुख है,
गिर न जाय ओठों तक आकर,
दे अनन्त! तू थोड़ा-थोड़ा।
नयनों पर सुख, नयनों पर दुख,
दुख में सुख, सुख में दुख जोड़ा।


रचनाकाल: खण्डवा, फरवरी-१९५६