तर्पण का स्वर / माखनलाल चतुर्वेदी
ना, ना, ना, रे फूल, वायु के झोंको पर मत डोल सलोने,
सोने सी सूरज-किरनों से, पंखड़ियों से बोल सलोने,
सावन की पुरवैया जैसे भ्रंग--कृषक तेरे तेरे पथ जोहें,
तेरे उर की एक चटख पर हो न जाय भू-डोल सलोने!
शिर का और शिराओं को युग, रक्त-वहन-कारी रहने दो,
मस्तक की रोली अहिवातिन, लाल-लाल प्यारी रहने दो,
मत्था चढ़े कि मत्था उतरे,
चक्र-सुदर्शन-छवि मुरलीधर, दुनिया से न्यारी रहने दो।
वह नेपाल, प्रलय का प्रहरी, भारत का बल, भारत का शिर!
वह कश्मीर कि जिस पर काले-पीले-उजले मेघ रहे घिर!
आज अचानक अमरनाथ के शिर से उतर रही युग-गंगा,
उठो देश, दे दो परिक्रमा, कहती है भैरवी कि फिर-फिर-
माथे की बिन्दी-हिन्दी को-चलो गोरखाली में बोलें,
वीरों को निर्वीर बनाया-उठो आज यह पातक धोलें,
तेवर, तीर, तलवार, ताज से ऊपर तर्पण का स्वर गूँजे,
भू-मण्डल भूदान-पथी उस जादूगर की थैली खोलें!
रचनाकाल: खण्डवा-१९५४