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घरः दस भाव चित्र / कविता वाचक्नवी

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घर : दस भावचित्र

१.

ये बया के घोंसले हैं, नीड़ हैं घर हैं - हमारे जगमगाते भर दिखें सो टोहती हैं केंचुओं की मिट्टियाँ हम।

२.

आज मेरी बाँह में घर आ गया है किलक कर, रह रहे फुटपाथ पर ही एक नीली छत तले।

३.

चिटखती उन लकड़ियों की गंध की रोटी मिले दूर से घर लौटने को हुलसता है मन बहुत।

४.

सपना था काँच का टूट गया झन्नाकर घर, किरचें हैं आँखों में औ’ नींद नहीं आती।

५.

जब विवशता हो गए सम्बंध तो फिर घर कहाँ, साँस पर लगने लगे प्रतिबंध तो फिर घर कहाँ?

६.

अंतर्मन की झील किनारे घर रोपा था, आँखॊं में अवशेष लिए फिरतीं लहरें।

७.

लहर-लहर पर डोल रहा पर खेल रहा है अपना घर, बादल! मत गरजो बरसो चट्टानों से लगता है डर।

८.

घर रचाया था हथेली पर किसी ने उँगलियों से, आँसुओं से धुल मेहंदियाँ धूप में फीकी हुई।

९.

नीड़ वह मन-मन रमा जो नोंच कर छितरा दिया तुमने स्वयं। विवश हूँ उड़ जाऊँ बस प्रिय! रास्ता दूजा नहीं।

१०.

साँसों की आवाजाही में महक-सा अपना घर वार दिया मैंने तुम्हारी प्राणवाही उड़ानों पर।