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न्याय तुम्हारा कैसा / माखनलाल चतुर्वेदी

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प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,
अन्याय तुम्हारा कैसा?
यह इधर साधु की कुटिया जो तप कर प्राण सुखाता,
तेरी वीणा के स्वर पर दीनों में मिल-मिल जाता।

मल धोता, जीवन बोता, छोड़े आँसू का सोता,
जब जग हरियाला होता, तब वह हरियाला होता।
उसके पड़ोस में ही हा! यह हत्यारे का घर है,
जो रक्तमयी तपड़न पर करता दिन-रात गुजर है!

फिर इधर खेत गेहूँ के हँसते हैं लह-लह करते,
क्या जाने इस हँसने पर कितने किसान हैं मरते?
हरियाली के ब्रह्मापर कितनी गाली बरसेंगी?
छोटी-छोटी सन्तानें रट ’अन्न-अन्न’ तरसेंगी,

होंगे पक्वान्न किसी के उसकी इस रखवाली में
उसका यह रक्त सजेगा कुछ धनिकों की थाली में
वह भी देखेगा इस को जब आयेगा त्योहार,
उस दिन किसान की मेहनत, वह हरियाला संसार।

उसके आँसू की दुनियाँ, उसके जीवन का भार,
पंडित हो या कि कसाई, राजा हो या कि चमार,
सबकी थाली का होगा उसका गेहूँ श्रृंगार।
प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,
अन्याय तुम्हारा कैसा?



रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४