भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोची की आँखों में / शलभ श्रीराम सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:42, 18 दिसम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखें उठी हुई हैं
आदम कद आस्था कि एक स्त्री खड़ी है सामने
कठवत के पानी को गंगा में बदलने की शक्ति से भरपूर
एक चंगा मन सहेजे अपने भीतर
मोची की आँखों में
सिर्फ़ राँपी नहीं हो सकती है कोई स्त्री

आँखें उठी हुई हैं
इतिहास का एक पन्ना खड़ा है सामने
पूरे परिदृश्य में सम्मान की तरह
व्यवधान से थोड़ा ऊपर, नीचे थोड़ा आग्रह और निवेदन से
मोची की आँखों में
सिर्फ़ सूजा नहीं हो सकता है कोई पुरुष

आँखें उठी हुई हैं
सामने बच्चे की शक्ल में खड़ा है पुष्पित अनुराग
पंखुड़ी-पंखुड़ी खुलकर खिलने का सपना परोसता
हास की सुगंध से सुवासित करता मन को
मोची की आँखों में
सिर्फ़ सूता नहीं हो सकता है कोई भी बच्चा

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।