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मैं क्या करूँ इसका / चंद्र रेखा ढडवाल

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हमेशा ही से
अच्छा लगता रहा है गुलाब
पसंद करते-करते
कब उसी को
पसन्द करते रहने की
प्रतिज्ञा मैंने कर ली
नहीं जानती
पर आजकल ये जो
बोगनवीलिया के
क़ाग़जी-से लगते फूल को
जूड़े में लगा लेने
और गुल-मेहंदी के
इस गुलानारी फूल को
अंजुरी में समेट कर
आँखों के बहुत पास तक
ले आने का मन होता है
मैं क्या करूँ इसका.