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बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन / पृष्ठ २

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वहीं बंगाल--
जिसकी एक साँस ने भर दी
मरे देश में जान,
आत्म सम्मान,
आजादी की आन,
आज,
काल की गति भी कैसी, हाय,
स्वयं असहाय,
स्वयं निरुपाय,
स्वयं निष्प्राण,
मृत्यु के मुख का होकर ग्रास,
गिन रहा है जीवन की साँस।

हे कवि, तेरे अमर गान की
सुजला, सुफला,
मलय गंधिता
शस्य श्यामला,
फुल्ल कुसुमिता,
द्रुम सुसज्जिता,
चिर सुहासिनी,
मधुर भाषिणी,
धरणी भरणी,
जगत वन्दिता
बंग भूमि अब नहीं रही वह!

बंग भूमी अब
शस्य हीन है,
दीन क्षीण है,
चिर मलीन है,
भरणी आज हो गई हरणी;
जल दे, फल दे और अन्न दे
जो करती थी जीवन दान,
मरघट-सा अब रूप बनाकर,
अजगर-सा अब मुँह फैलाकर
खा लेती अपनी संतान!
बच्चे और बच्चियाँ खाती,
लड़के और लड़कियाँ खाती,
खाती युवक, युवतियाँ खाती,
खाती बूढ़े और जवान,
निर्ममता से एक समान;
बंग भूमि बन गई राक्षसी--
कहते ही लो कटी ज़बान!...

राम-रमा!
क्षमा-क्षमा!
माता को राक्षसी कह गया!
पाप शांत हो,
दूर भ्रान्ति हो।
ठीक, अन्नपूर्णा के आँचल
में है सर्वस,
अन्न तथा रस,
पड़ा न सूखा,
बाढ़ न आई
और नहीं आया टिड्डी दल,
किन्तु बंग है भूखा, भूखा, भूखा!
माता के आँचल की निधियाँ
अरे लूटकर कौन ले गया?

हाथ न बढ़ तू,
ठहर लेखनी,
अगर चलेगी, झूठ कहेगी,
हाथों पर हथकड़ी पड़ी है,
सच कहने की सज़ा बड़ी है,
पड़े जबानों पर हैं ताले,
नहीं जबानों पर, मुँह पर भी,
पड़े हुए प्राणों के लाले--
बरस-बरस के पोसे पाले
भूख-भूख कर,
सूख-सूखकर,
दारुण दुख सह,
लेकिन चुप रह,
जाते हैं मर,
जाते हैं झर
जैसे पत्ते किसी वृक्ष के
पीले, ढीले
झंझा के चलने पर!
कृमि-कीटों की मृत्यु किस तरह
होती इससे बदतर!