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प्रेम-7 / रविकान्त
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तुम्हारा प्रेम मेरी देह में गमकता है।
रोम-रोम से आता-जाता-सा लगता है।
कभी-कभी तो
पीछा करने लगता हूँ
कि ठीक-ठीक कहाँ से बरसता है
तुम्हारा प्रेम-
तुम्हारी आँखों की चमक से या
तुम्हारी गर्म-ठंडी रोटी से,
तुम्हारे खिले हुए होंठों से या
तुम्हारी खुली उजली बातों से।
तुम्हारे रंगों भरे पारदर्शी प्रेम में
जाग रहा हूँ मैं।
तुम्हारी गहरी उदासी से
विकल हूँ।