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पत्थर-से गम सहते हैं / रमा द्विवेदी
Kavita Kosh से
कोमल बचपन पत्थर-से गम सहते हैं।
रूखे अधर, आंख में पानी,
बचपन जाने से पहले ही बीती जाय जवानी,
नहीं पसीजे कोई इनके दुख से
चीख-चीख यह कहते हैं ......
भोजन, कपडा नहीं बराबर,
इनके लिए दिन-रात परिश्रम,
खा पीकर जब करते सब आराम,
काम तब भी ये करते हैं.......
कैसी आज़ादी जहाँ सुकुमारता बंधक है?
बडे-बडे कानून हैं पर इनका कोई न रक्षक है?
नारे लगाते बड़े-बड़े फिर भी,
इनका दुख न कोई हरते हैं.....
उनके अन्तस के चीत्कार को,
कौन सुनेगा उनकी पुकार को?
पग-पग पर ठोकर खाते,
फिर भी प्रतिकार न करते हैं.....
जीने का हक इन्हें भी दे दो,
अधिकार,प्यार इन्हें भी दे दो,
इनका जीवन बदलेंगे हम,
संकल्प आज ये करते हैं.....