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शहर: एक नागफाँस / श्रीनिवास श्रीकांत

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गुमशुदा पहचान
और अनमने आसमान के बीच
परबतों के ऊँट
बैठे हैं फिर उसी करवट

फिर उसी दिशा से लगी हैं आने
यायावर पंछियों की कतारें
टंग गया है फिर उसी तरह सूरज
पूरब से ख़ला में

घास सिहरती है
कुन्द हवा
ढलती धूप
और ज़हन के हाशियों पर
उभरती याद के साथ

घाटीए की छाती में
धंसा है नगर:
खून चूसती जोंक
पाउडर पोतती बाज़ारू औरत
या जेब ख़नखनाते कुली की तरह

रेलिंग
सड़क
व घर
आ गये हैं
एक दूसरे के समीप

मेरे आँगन में
उसका अहाता
उसएक अहाते में
मेरा पब
मेरे पब में चुस्कियां भरते
मौसमख़ोर दोस्त
पिछले हिमपात
जो लग रहा था अनाथ
उदास
बेबस

मेरे बीच से
जो गुज़रता रहा
लगातार
टपकती छतों के रिदम
और झिंगुर के आर्केस्ट्रा के साथ
वह नगर
अब उतार रहा
अपनी कैंचुल
मादा-गंध से नाग ज्यों होता मदनातुर
वैसे ही ये
लगा है रेंगने
बच्चे ख़ुश हैं
कि आसमान साफ़ है
पिघल चुकी है बर्फ़
बा दुखी है
कि अबके
फिर आयेंगे मेहमाब
बिगड़ेगा बजट
और मिज़ाजपुरसी की
पवित्र शिला पर
ज़िबह होगा
चुन्नू का कोट
डौली का स्कर्ट
और मोना की सन्दली साड़ी हिसाब