Last modified on 29 दिसम्बर 2009, at 11:52

शब्द / भविष्य के नाम पर / केशव

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:52, 29 दिसम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लिखकर भी
पूरा नहीं उतरता
भीतर का सच

रंग
जम जाते हैं
चित्र की हथेलियों पर

बार-बार होती है दस्तक
भीतर
गुहा द्वार पर

पर
पुतलियों में जम जाती है
एक झील

शब्द
कर लेते हैं आत्महत्या
खिड़कियों से कूद
गुहा द्वार खुलने से पहले

कथावाचक
जिन आख्यानों के सहारे
प्रस्तुत करते हैं समाधान
वह प्रभु
जन्मता तो है
पर मुर्दा

कि नपुंसक हैं ये शब्द
जो नहीं लाँघते
लक्ष्मण-रेखाएँ
खोलते नहीं घाव
और अनुभव
हमेशा छूट जाता है
अपने सँस्करण छाप।