भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परिवर्तन / टूटती शृंखलाएँ / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
दुनिया का कण-कण परिवर्तित
गूँजा जीवन-संगीत नवल,
प्रतिक्षण सुंदरतर निर्मिति हित
है व्यस्त सतत जन-जन का बल !
सदियों का सोया जागा है
युग-मानव नव बन आया है,
जल जाएगा विश्व अशिव सब
यह अनबुझ ज्वाला लाया है !
मिथ्या विश्वासों के शव पर
नव-संस्कृति-ज्वाला रही बिखर,
पिछड़ी सोयी मानवता के
नयनों में नव-आलोक प्रखर !
आँसू, लूट, नाश का निर्मम
रक्तिम, वहशी इतिहास गया,
क्षत-विक्षत जग के आँगन का
होता अब तो निर्माण नया !