भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबह हमसे बाहर हो रही थी / चन्द्रकान्त देवताले

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:31, 2 जनवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम लोगों से बाहर सुबह हो रही थी
हम खड़े थे ख़ामोशी के भीतर
पानी की तलवार चमकाते हुए
गर्मी थी
मई से ज्यादह
गर्मी से अधिक थी मजबूरी पानी की
ख़्वाहिश से कम नहीं थी गले में प्यास
प्यास थी बहते हुए पानी के लिए
पानी था तलवार में तना हुआ
नदी थी ताबूत में
ताबूत था नहीं हमारा
कंधे थे हमारे ताबूत ढोते हुए
पाँव थे हमारे
पर चाबुक थे उनके
उनके थे उन्हीं के हाथों में चाबुक
जो दौड़ा रहे थे पाँवों को हमारे
दोपहरी थी सदी जितनी
पसीना था नदी जितना
नदी ताबूत में थी
ताबूत था डिबिया बराबर
चाबुक थे तिनके के समान
फिर भी सुबह हमसे बाहर हो रही थी