Last modified on 3 जनवरी 2010, at 11:45

मैं फँस गया हूँ / अश्वघोष

Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:45, 3 जनवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं फँस गया हूँ अबके ऐसे बबाल में
फँसती है जैसे मछली, कछुए के जाल में।

उस आदमी से पूछो रोटी के फ़लसफ़े को
जो ढूँढता है रोटी पेड़ों की छाल में।

रूहों को क़त्ल करके क़ातिल फ़रार है
ज़िन्दा है गाँव तब से मुर्दों के हाल में।

जो गन्दगी से उपर जन-मन को ख़ुश करें
ऐसे कमल ही रोपिए संसद के ताल में।

गर मुफ़लिसी का मोर्चा तुमको है जीतना
कुछ ओर तेज़ी लाइए ख़ूँ के उबाल में।