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कहीं भी लेश अपनापन नहीं है / विनोद तिवारी
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कहीं भी लेश अपनापन नहीं है
कहीं भी कोई भावुक मन नहीं है
बड़े झुरमुट बबूलों के उगे हैं
वनों में हाय अब चन्दन नहीं है
ये रंगों का शहर है झिलमिलाता
चमकती चीज़ पर कुंदन नहीं है
यहाँ के लोग हैं ख़ुद से अपरिचित
नगर में एक भी दरपन नहीं है
सदाशयता की बातें कर रहा था
वही व्यक्ति जो ख़ुद सज्जन नहीं है