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राही और बाँसुरी / रामधारी सिंह "दिनकर"

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राही

सूखी लकड़ी! क्यों पड़ी राह में
यों रह-रह चिल्लाती है?
सुर से बरसा कर आग
राहियों का क्यों हृदय जलाती है?

यह दूब और वह चन्दन है;
यह घटा और वह पानी है?
ये कमल नहीं हैं, आँखें हैं;
वह बादल नहीं, जवानी है।

बरसाने की है चाह अगर
तो इनसे लेकर रस बरसा।
गाना हो तो मीठे सुर में,
जीवन का कोई दर्द सुना।

चाहिए सुधामय शीतल जल,
है थकी हुई दुनिया सारी।
यह आग-आग की चीख किसे,
लग सकती है कब तक प्यारी?

प्यारी है आग अगर तुझको,
तो सुलगा उसे स्वयं जल जा।
सुर में हो शेष मिठास नहीं,
तो चुप रह या पथ से टल जा।

बाँसुरी

बजता है समय अधीर पथिक,
मैं नहीं सदाएँ देती हूँ।
हूँ पड़ी राह से अलग, भला
किस राही का क्या लेती हूँ?

मैं भी न जान पाई अब तक,
क्यों था मेरा निर्माण हुआ।
सूखी लकड़ी के जीवन का
जानें सर्वस क्यों गान हुआ।

जानें किसकी दौलत हूँ मैं
अनजान, गाँठ से गिरी हुई।
जानें किसका हूँ ख्वाब,
न जाने किस्मत किसकी फिरी हुई।

तुलसी के पत्ते चले गये
पूजोपहार बन जाने को।
चन्दन के फूल गये जग में
अपना सौरभ फैलाने को।

जो दूब पड़ोसिन है मेरी
वह भी मन्दिर में जाती है।
पूजतीं कृषक-वधुएँ आकर,
मिट्टी भी आदर पाती है।

बस, एक अभागिन हूँ जिसका
कोई न कभी भी आता है।
तूफाँ से लेकर काल-सर्प तक
मुझको छेड़ बजाता है।

यह जहर नहीं मेरा राही,
बदनाम वृथा मैं होती हूँ।
दुनिया कहती है चीख
मगर, मैं सिसक-सिसक कर रोती हूँ।

हो बड़ी बात, कोई मेरी
ज्वाला में मुझे जला डाले।
या मुख जो आग उगलता है
आकर जड़ दे उस पर ताले।