भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाक़ी है ईमान अभी भी / उमाशंकर तिवारी

Kavita Kosh से
पूजा जैन (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:50, 19 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमाशंकर तिवारी }} {{KKCatNavgeet}} <poem> हम न रुकेंगे गलियारो…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम न रुकेंगे गलियारों में,
हम न बिकेंगे बाज़ारों नें
बाकी है ईमान अभी भी
आधी और गुज़र जाएगी
इतना है सामान है अभी भी

संचय का सुख जान न पाए
जोड़े भी तो सपने जोड़े -
इन हाथों से नीले नभ नें
कितने श्वेत कबूतर छोड़े?

हम विषपायी जनम-जनम के
ज़िन्दा वो पहचान अभी भी।

आग चुराकर सौ दुख झेले
सब कुछ देकर आग बचाई
बन बै ठे चन्दन की समिधा
चारों कोने आग लगाई

जलकर भी ख़ुशबू ही देगें
जलने का अभिमान अभी भी।

बाग़ी, हमदम, दोस्त हमारे
मरजीवों से रिश्ते - नाते
दुनिया हमको समझ न पाती
हम दुनिया को समझ न पाते

लीकें छोड़ें. पत्थर तोड़ें
हम ऐसे तूफ़ान अभी भी।