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पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ५

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पर मैं ही यदि परनारी से, पहले संभाषण करता,
तो छिन जाती आज कदाचित् पुरुषों की सुधर्मपरता।
जो हो, पर मेरे बारे में, बात तुम्हारी सच्ची है,
चण्डि, क्या कहूँ, तुमसे, मेरी, ममता कितनी कच्ची है॥

माता, पिता और पत्नी की, धन की, धरा-धाम की भी,
मुझे न कुछ भी ममता व्यापी, जीवन परम्परा की भी,
एक-किन्तु उन बातों से क्या, फिर भी हूँ मैं परम सुखी,
ममता तो महिलाओं में ही, होती है हे मंजुमुखी॥

शूरवीर कहकर भी मुझको, तुम जो भीरु बताती हो,
इससे सूक्ष्मदर्शिता ही तुम, अपनी मुझे जताती हो?
भाषण-भंगी देख तुम्हारी, हाँ, मुझको भय होता है,
प्रमदे, तुम्हें देख वन में यों, मन में संशय होता है॥

कहूँ मानवी यदि मैं तुमको, तो वैसा संकोच कहाँ?
कहूँ दानवी तो उसमें है, यह लावण्य कि लोच कहाँ?
वनदेवी समझूँ तो वह तो, होती है भोली-भाली,
तुम्हीं बताओ कि तुम कौन हो, हे रंजित रहस्यवाली?"

"केवल इतना कि तुम कौन हो", बोली वह-"हा निष्ठुर कान्त!"
यह भी नहीं-"चाहती हो क्या, कैसे हो मेरा मन शान्त?"
"मुझे जान पड़ता है तुमसे, आज छली जाऊँगी मैं;
किन्तु आ गई हूँ जब तब क्या, सहज चली जाऊँगी मैं।

समझो मुझे अतिथि ही अपना, कुछ आतिथ्य मिलेगा क्या?
पत्थर पिघले, किन्तु तुम्हारा, तब भी हृदय हिलेगा क्या?"
किया अधर-दंशन रमणी ने, लक्ष्मण फिर भी मुसकाये,
मुसकाकर ही बोले उससे--"हे शुभ मूर्तिमयी माये!

तुम अनुपम ऐशर्य्यवती हो, एक अकिंचन जन हूँ मैं;
क्या आतिथ्य करूँ, लज्जित हूँ, वन-वासी, निर्धन हूँ मैं।"
रमणी