पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ६
अरे, कौन है, वार न देगी, जो इस यौवन-धन पर प्राण?
खाओ इसे न यों ही हा हा, करो यत्न से इसका त्राण।
किसी हेतु संसार भार-सा, देता हो यदि तुमको ग्लानि,
तो अब मेरे साथ उसे तुम, एक और अवसर दो दानि!"
लक्ष्मण फिर गम्भीर हो गये, बोले--"धन्यवाद धन्ये!
ललना सुलभ सहानुभूति है, निश्चय तुममें नृपकन्ये!
साधारण रमणी कर सकती, है ऐसे प्रस्ताव कहीं?
पर मैं तुमसे सच कहता हूँ कोई मुझे अभाव नहीं॥"
"तो फिर क्या निष्काम तपस्या, करते हो तुम इस वय में?
पर क्या पाप न होगा तुमको, आश्रम के धर्म्मक्षय में?
मान लो कि वह न हो, किन्तु इस, तप का फल तो होगा ही,
फिर वह स्वयं प्राप्त भी तुमसे, क्या न जायगा भोगा ही?
वृक्ष लगाने की ही इच्छा, कितने ही जन रखते हैं,
पर उनमें जो फल लगते हैं, क्या वे उन्हें न चखते हैं?"
लक्ष्मण अब हँस पड़े और यों, कहने लगे--"दुहाई है!
सेंतमेंत की तापस पदवी, मैंने तुमसे पाई है॥