कल तुम्हारी प्रतीक्षा थी ।
सोच बैठा, कौन जाने लहर मन में उठे और यों ही चली आओ ।
बात कुछ ऎसी थी कि कल अन्तहीन शून्य मन में भर गया था । नाड़ी सुस्त हो गई थी । बाहर भी
भीतर का शून्य घिरा देखता था । ऎसे में हारा मन तुम्हारी शरण जा पहुँचा । पल-भर भी मैंने यह नहीं
सोचा, मेरी जैसी दशा तुम्हारी भी हो सकती है । खुशियों की लहरें आ जाती हैं और चली जाती हैं और
हम पड़े रह जाते हैं ।
आज ज़रा चिन्ता के समुद्र से सिर बाहर निकाला है और तुम्हें देखकर आवाज़ जो हृदय से उठी उसे
अक्षरों में रख रहा हूँ । तुम्हें भी ज्ञात हो जाए कि मैं सदा सर्वदा प्रसन्न नहीं रहता और यह जान सको,
तुमने एक जीवित हृदय का स्पर्श किया है, ऎसे हृदय का जो देश काल के प्रभाव लेता है, बिल्कुल जड़
नहीं है । मेरे इस हृदय को अच्छी तरह जान लो और फिर जैसा तुम्हें जान पड़े वैसा करो । प्यार, घृणा,
उदासीनता, सहानुभूति, मुझे क्या-क्या नहीं चाहिए ।