स्त्री और कविता / रवीन्द्र दास
सूने आँगन को पाकर स्त्री
नाच उठी थी तन-मन से , जैसे कि अभी कुछ देर मिला हो
जीने का कुछ तर्क उसे।
औरों की आँखें रस्सी सी बाँधे रहती
कुछ भी न कहें
या स्नेह करें
पर जकड़न सी अनुभूति सदा घेरे रहती
वह सीमित है, अनुबंधित है -
वह कई विकल्पों में घिरकर प्रतिबंधित है
ऐसा क्यों है?
उसने सोचा है कई बार
वह स्त्री है - हर बार यही उत्तर पाया।
है कविताओं से बहनापा उसका
छुप-छुप कर कविता से मिलती रहती
कविता तो शब्द-शरीरी है
प्रजनन की कोई शर्त नहीं
फिर भी कुछ कविता-व्यापारी
कुछ कविता का अपमान करें
यह कहकर,
इसका अर्थ नहीं
इन शब्दों में संवाद-योग्यता सीमित है .....
पर यह मिलती कविता से
एकांत देश , उन्मुक्त वेश
कविता भी नृत्य दिखाती है
वह युवती कविता का बंधन अपने बंधन सा पाती है
अपनी मुक्ति के सपने में
कविता की मुक्ति मिलाती है
कविता को ख़ुद में पाती है
कविता में ख़ुद को पाती है
वह हसती है , वह गाती है
कविता स्त्री बन जाती है - स्त्री कविता बन जाती है
स्त्री ... कविता ... कविता..... स्त्री...... ।