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बीमार होता है कोई मज़दूर / रवीन्द्र प्रभात

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बीमार होता कोई सेठ
ज़रूरत महसूस नही होती ओझा-गुणी की
नीम-हकीम से भी ठीक नही होते सेठ

दुआएँ नही भाती उसे
अपने मजदूरों की
दिए जाते कोरामीन / पहुँचाया जाता कोमा में
किसी अमीर शहर के अमीर अस्पताल में
मंत्रियों की सिफारिशों पर
बुलाए जाते चिकित्सकों के दल ग़ैर मुल्कों से

हिदायत दी जाती सेठ को
अय्याशी न करने की
ठीक हो जाने तक ..!

बीमार होता कोई मज़दूर
कुछ सहज होता
वैसे हीं
जैसे सहज होती पृथ्वी
होती चिडिया
होता कुम्हार
चलती हुई चाक पर बर्तन गढ़ते हुए...!

नही बदल जाता शहर का मिजाज अचानक
नही होती मन्त्रियों के कानों में सुनगुनाहट
ठीक हो जाती बीमारी
खुराक वाली पुड़िये से

अगले हीं दिन
निकल जाता वह काम पर
पहले की तरह इत्मीनान से ।

किंतु , कट ही जाती
उसकी एक दिन की दिहाडी
बहाना बनाने के जुर्म में...!

अर्थ-व्यवस्था की नींव होते हैं मजदूर ,
किंतु फ़िर भी
चिंतित नही होते सेठ, जबकि-
दोनों बीमार पड़ते हैं
एक काम करते हुए तो दूसरा काम न करने के एवज में .....

सालों बाद देखा है
धनपतिया को आज
धुप की तमतमाहट से कहीं ज़्यादा