पौ फटने के पहले
बहुत पहले जगता झिन्गना
पराती गाते हुए डालता
सूअरों को खोप में
दिशा-फ़ारिग के बाद
खाता नोन-प्याज-रोटी
और निकल जाता
जीवन की रूमानियत से दूर
किसी मुर्दा-घर की ओर ।
शाम को थक कर चूर होता वह
लौट आता अपने घर
काँख में दबाए
सत्तर-पचास नंबर की देशी शराब
और पीकर भूल जाता
दिन-भर के सारे तनाव ।
रहस्य है कि -
कैसे जुटा लेता वह
सुकून के दो पल
साथ में-
तीज-त्यौहार के लिए
सुपली-मौनी/लड्डू-बतासा
पंडित के लिए
दक्षिणा-धोती
जोरू के लिए
साडी-लहठी-सेनुर आदि ।
अपने परम्परागत पेशे को
ढोता हुआ आज भी वह
वाहन कर रहा सलीके से
मर्यादित जीवन को बार-बार
सतही मानसिकता से ऊपर
और, खद्दर-खादी की छाया से दूर
दे रहा अपने काम को अज़ाम
पूरी ईमानदारी के साथ ।
कभी मौज आने पर
सिनेमा से दूर रहने वाला वह
खुद बन जाता सिनेमा
और जुटा लेता अच्छी-खासी भीड़
अपने इर्द-गिर्द
अलाप लेकर -
आल्हा -उदल / सोरठी-बिर्जाभार
सारंगा-सदाब्रिक्ष/भारतरी चरित
या बिहुला-बाला-लखंदर का ।
लगातार -
समय के थपेडों को खाकर भी
नही बदला वह
बदल गया लेकिन समय
फिर, समय के साथ उसका नाम-
पहले अस्पृश्य, पुनः अछूत
कालांतर में हरिजन
और, अब वह -
दलित हो गया है
शायद-
कल भी कोई नया नाम जुटेगा
झिन्गना के साथ ।
लेकिन, झिन्गना -
झिन्गना हीं रहेगा अंत तक
और साथ में उसकी
अपनी राम कहानी ।