Last modified on 5 फ़रवरी 2010, at 21:24

एक कतरा ज़िन्दगी जो रह गई है / रवीन्द्र प्रभात

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:24, 5 फ़रवरी 2010 का अवतरण ("एक कतरा ज़िन्दगी जो रह गई है / रवीन्द्र प्रभात" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक कतरा ज़िन्दगी जो रह गई है,
घोल दे सब गंदगी जो रह गई है।

भीख देगा कौन तुझको, ये बताना-
तुझमें ये आवारगी जो रह गई है?

आँख से आँसू छलक जाते अभी तक,
इश्क में संजीदगी जो रह गई है!

चाँदनी में घूमता है रात-भर वह,
चाँद में दोशीज़गी जो रह गई है!

बेबसी की बात करना छोड़ दे अब,
ख़ुदगर्ज़-सी ये बंदगी जो रह गई है!

सर क़लम कर मेरा, खंजर फेंक दे,
आँख में शर्मिन्दगी जो रह गई है!

फासला 'प्रभात' से है इसलिए, बस,
आपकी नाराज़गी जो रह गई है।