Last modified on 9 फ़रवरी 2010, at 20:36

सपनों की दुनिया-2 / देवेन्द्र कुमार देवेश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:36, 9 फ़रवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र कुमार देवेश |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> सोई हु…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सोई हुई आँखों के सपने
शायद ही कभी होते हैं मनोनुकूल
सब कुछ भिन्न होता है प्रायः
हमारी जागी हुई दुनिया के सपनों से।
किस दुनिया के होते हैं ये सपने?
कैसे रोकें हम इनकी घुसपैठ
अपने अवचेतन मन से चेतन संसार तक?