Last modified on 12 फ़रवरी 2010, at 14:48

चलते जाने का धर्म हैं सड़कें / विनोद तिवारी

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:48, 12 फ़रवरी 2010 का अवतरण ()

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चलते जाने का धर्म हैं सड़कें
जी हाँ, जीवन का मर्म हैं सड़कें

सूने बाज़ार से गु़ज़रती हैं
आजकल ख़ूब गर्म हैं सड़कें

तुम सियासत से हट के देखो तो
चीख़ती,शर्म-शर्म हैं सड़कें

जब उजाला था कर्म थीं श्रम का
रात आई, कुकर्म हैं सड़कें

शहरों में सख़्त-जान पत्थर हैं
गावों में मोम नर्म हैं सड़कें