रचनाकार: तारा सिंह
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
- सुन ऐ! बदरा अल्हड , पवन की सखा
- लग – लग कर बिजली के अंग
- क्यों गिराती हो अपने रूप की छटा
- क्षितिज पर है, कौन अतिथि बैठा
- जिसको दे रही तुम, आने का न्यौता
- कौन है, वह पत्थर– दिल प्रेमी तुम्हारा
- जो विरह-ज्वाला के बारूदी जल से
- है तुमको स्वतः नहला रहा
- मन कामना की तरंगों से है अधीर
- अंग- अंग है, तुम्हारा शमशीर
- मदहोश जवानी की है चंचलता
- बातों में है, शब्दों की चपलता
- आँखों में भरी हुई विछोह की नीर
- और मनोदशा की वायु है गंभीर
- तुम्हारी आँखों में है स्वर्ग का नूर
- फिर क्यों तुम इतनी हो मजबूर
- आवारा वायु संग दौड़ती – फिरती
- कुल मर्यादा की बात न सोचती
- आखिर कौन हो तुम बाला, सुंदरी
- तारों के झूलों पर झूलती हुई
- रंभा हो या स्वर्गपरी उर्वशी
- पत्तों पर मोती की तरह
- नदियों में सीप की तरह
- चमकती है तुम्हारी मुखाकृति
- क्यों न अपने प्रिय के गले लगकर
- निर्मल तरंगिणी की धारा बनकर
- तुम उतर आती हो, धरती पर
- केवल अन्तर्दाह करते रहने से
- प्यार की ज्वाला नहीं बुझती
- बल्कि दो धुनि के मिलते रहने से ही
- होती है, सागर की उत्पत्ति
- मन जले किन्तु तन पर कोई दाग न लगे
- यह कोई व्रत नहीं, अतृप्त वेदना की ललक है
- इससे तन को बल, मन को लय नहीं मिलता
- ऐसा प्रेम चाहे जितना ही पवित्र क्यों न हो
- पर उसका प्यार अधूरा होता है
- जिसका प्रेम, वियोग-लहर में खो जाता है
- उसका मन ही नहीं, तन भी खो जाता है