भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखते जाओ मगर कुछ भी / क़तील
Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:02, 16 फ़रवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=क़तील शिफ़ाई }} <poem> देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से …)
देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से न कहो
मसलिहत का ये तकाज़ा है की खामोश रहो
लोग देखंगे तो अफसाना बना डालेंगे
यूँ मेरे दिल में चले आओ के आहट भी न हो
गुनगुनाती हुई रफ्तार बड़ी नेमत है
तुम चट्टानों से भी फूटो तो नदी बन के बहो
ग़म कोई भी हो जवानी में मज़ा देता है
ग़म-ए-जहाँ जो नहीं है ग़म-ए-दौरान ही सहो
हो चुके प्यार में रुसवा सर-ए-बाज़ार क़तील
अब कोई हम को नहीं फ़िक्र जो होना है सो हो