भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आराइश-ए-ख़याल भी हो / नासिर काज़मी

Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:32, 23 फ़रवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आराइश-ए-ख़याल भी हो दिलकुशा भी हो
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो

ये क्या कि रोज़ एक सा ग़म एक सी उम्मीद
इस रंज-ए-बेख़ुमार की अब इंतहा भी हो

ये क्या कि एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र
जी चाहता है अब कोई तेरे सिवा भी हो

टूटे कभी तो ख़्वाब-ए-शब-ओ-रोज़ का तिलिस्म
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो

दीवानगी-ए-शौक़ को ये धुन है इन दिनों
घर भी हो और बे-दर-ओ-दीवार सा भी हो

जुज़ दिल कोई मकान नहीं दहर में जहाँ
रहज़न का ख़ौफ़ भी न रहे दर खुला भी हो

हर ज़र्रा एक महमील-ए-इब्रत है दश्त का
लेकिन किसे दिखाऊँ कोई देखता भी हो

हर शय पुकारती है पस-ए-पर्दा-ए-सुकूत
लेकिन किसे सुनाऊँ कोई हमनवा भी हो

फ़ुर्सत में सुन शगुफ़्तगी-ए-ग़ुंचा की सदा
ये वो सुख़न नहीं जो किसी ने कहा भी हो

बैठा है एक शख़्स मेरे पास देर से
कोई भला-सा हो तो हमें देखता भी हो

बज़्म-ए-सुख़न भी हो सुख़न-ए-गर्म के लिये
ताऊस बोलता हो तो जंगल हरा भी हो