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क़दम इंसान का राहे-दहर में / जोश मलीहाबादी

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क़दम इंसान का राह-ए-दहर<ref>जीवन की राह</ref> में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है

नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना<ref>सच्चाई को चाहने वाला</ref> फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश<ref>मु्श्किलों की भीड़</ref> में आदमी घबरा ही जाता है

ख़िलाफ़-ए-मसलेहत<ref>समझदारी के उलट</ref> मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर<ref>बदलाव</ref> आ ही जाता है

हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है

शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसान की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता<ref>खुशनुमा गुज़रे वक्त का ख्याल</ref> आ ही जाता है

समझती हैं म'अल-ए-गुल<ref>नतीज़ा</ref> मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है
सहर होते ही कलियों को तबस्सुम<ref>मुस्कराहट, खुशी</ref> आ ही जाता है

शब्दार्थ
<references/>